(प्रयागराज में लेटे हुए हनुमान जी का दिव्य रूप। फोटो स्रोत: फेसबुक)
जब मैं छोटा ही था, तब मेरी माताश्री ने सबसे पहले प्रभु श्री गणेशजी का पूजन करा मुझे ईश्वर के प्रति आस्था के बारे में समझाया ही नहीं, बल्कि “जय गणेश जय गणेश..” वाली पंक्तियां याद करवा दीं। उसके बाद उन्होंने मुझे श्री हनुमानजी वाला हनुमान चालीसा याद करवाया। इस प्रकार धीरे धीरे मैंने हनुमानजी के बारे में बहुत कुछ हमारे यहां आने वाले पण्डितजी के माध्यम से जाना।
इसी क्रम में पण्डितजी ने बताया कि यदि तुम श्री हनुमानजी की नियमित आराधना करोगे तो वे तुम्हारी न केवल सब तरह से रक्षा करेंगे, बल्कि तुम्हारा सब तरह से कल्याण भी करेंगे। तब से आज तक श्री हनुमानजी मेरे आराध्य हैं और अभी तक मुझे हर बार मेरे आराध्य ने संकट से उबारा भी हैं और उचित मार्गदर्शन भी कर देते हैं। इस सम्बन्ध में जो भी अनुभव हुए हैं, उनमें से कुछ को मैं आपके साथ यहां साझा कर रहा हूं, जिसमें एक तो बाल्यकाल से सम्बन्धित हैं, तो दूसरा नौकरी करते समय का जबकि अन्तिम वाला अभी कुछ साल पहले ही घटित हुआ था –
1- जब मैं छोटा ही था तब शाम के बाद पास वाले मन्दिर में झुलनोत्सव देख लौट रहा था। तभी सड़क पार करते समय मोटरगाड़ी से टक्कर लगने के कारण मैं गाड़ी के नीचे आ गया। चूंकि मैं दोनों पहियों के बीच गिरा था और गाड़ी भी थोड़ी ही आगे बढ़ रुक गई तब मैं नीचे से निकल भीड़ में आ मिला, जबकि सारे इकट्ठे लोग गाड़ी के नीचे खोज रहे थे। इस घटना ने मुझे एहसास कराया कि मेरे आराध्य ने ही मुझे मृत्यु से बचाया ।
2- मेरे बड़े भाई नवरात्र में नौ दिन तक श्री रामरक्षा स्तोत्र का पाठ करते हुए अनुष्ठान करते हैं। पारायण वाले यानी अन्तिम दिन मैं उसमें शामिल हुआ और मैं भी अपने बड़े भाई के पीछे बैठ श्री रामरक्षा स्तोत्र वाला पाठ करने लगा। इसी बीच मुझे अनुभूति हुई कि श्री हनुमानजी प्रगट हुए हैं और मैंने उनको प्रणाम किया लेकिन उनसे कुछ बोल नहीं पाया। तभी आरती के चलते मेरी तंद्रा भंग हुई और मैं बहुत ही रोमांचित हो यह सब बात वहां उपस्थित मेरे मामाजी, बड़े भाई व अन्य लोगों को बताई। इसके बाद मैं भी श्री रामरक्षा स्तोत्र वाला पाठ नित्य करना प्रारम्भ कर दिया। यह घटना लिखने का सारांश यही है कि पूरे श्रद्धा से, समर्पित भाव से आराध्य को ध्याते हैं, तो उचित मार्गदर्शन मिलता हैं।
3- एक बार मैं अपने एक दोस्त के साथ स्वर्गाश्रम गंगा स्नान व परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का दर्शन हेतु गया हुआ था। मेरे साथ गया दोस्त अपने छोटे लड़के के विक्षिप्तता के कारण परेशान रहता था। इसलिये उसने कहा कि अपने पहाड़ के ऊपर जा कर किसी सिद्ध महात्मा का पता लगा कर, उनसे इस बच्चे के बारे में बात कर देखें, शायद कोई हल मिल जाए। इसी सोच के चलते हम दोनों घूमते घूमते पहाड़ों पर चढ़ कर जब एक समतल जगह पहुंचे, तो पाया कि वहां कोई भी चिड़िया का जाया भी नहीं दिख रहा हैं और दूर दूर तक चारों दिशाओं में समतल रास्ते सुनसान पड़े हैं, और नीचे गंगा नदी एक लकीर की तरह दिख रही है । तब हम दोनों विचलित हो सोचने लगे कि हम इतने ऊपर आ तो गए अब नीचे कैसे उतरेंगे।
तभी एक रास्ते पर एक अकेला बालक आता दिखाई दिया, तब मन कुछ शान्त हुआ। जब बालक नजदीक आया तब उससे हमने चारों दिशाओं वाले रास्तों के बारे में पूछा। उसने एक रास्ते की ओर इंगित करते हुए बताया कि यह रास्ता बद्रीधाम की तरफ जाता है और दूसरे की ओर इशारा करते हुये बताया कि यह केदारधाम की तरफ, लेकिन इन रास्तों पर आगे मत जाना, कारण सबसे पहले तो यह सुनसान इलाका हैं और भूल भुलैया वाला भी, इसलिये भटक जाओगे। फिर उसने पूछा – तुमलोग यहां कैसे पहुंचे? तब हमने पहाड़ की तरफ इंगित कर बता दिया की इससे ऊपर आए हैं, साथ ही साथ ऊपर आने का प्रयोजन बताते हुये उससे उस विक्षिप्त बालक के बारे में बताते हुये ऊपर किसी सिद्ध महात्मा के बारे में बताने का आग्रह किया।
तब उसने बताया की ऊपर एक टाट वाले बाबा हैं, जिन्हे शिव की शक्ति प्राप्त है, लेकिन वे केवल दिन में एक बार सूर्य भगवान को अर्ध्य देने के वास्ते गुफा से बाहर आते हैं। इसके साथ यह आवश्यक नहीं कि वे गुफा से किस तरफ निकलेंगे और कब निकलेंगे। इसलिये उनको भूल जाना ही श्रेयस्कर रहेगा। फिर उसने नीचे की ओर सभी मठों की ओर इंगित करते हुये कहा कि वहां सब दुकानदारी है, लेकिन नीचे इन सबके बीच एक गीता भवन है जहां रामसुख सहज उपलब्ध है और उसे राम की शक्ति प्राप्त है। उसी की शरण में जाओ।
उस बालक ने हमसे जिस लहजे में बात की उससे मन में गुस्सा तो आ रहा था और इस बाबत हम उसे टोकें उसके पहले ही उसने हमें सचेत करते हुये कहा कि ध्यान से नीचे उतरना, काई बहुत है, यदि फिसल गये तो कचूमर निकल जाएगा, तब मानव स्वभावानुसार हम दोनों पहाड़ से नीचे देखने लगे तब तक वह आगे बढ़ गया और हमारे देखते देखते, दूर दूर तक समतल जगह होते हुये भी कुछ दूर बाद ही ओझल हो गया। जैसे ही वह ओझल हुआ हम दोनों दोस्तों की तंद्रा टूटी और हम दोनों एक दूसरे का मुंह देख, अफसोस कर सोचने लगे की आज हम चूक गये। हमारे अपने आराध्य स्वयं प्रगट हो, हमारा उचित मार्गदर्शन कर संकट से बचाया, बल्कि आगे कौन सा कदम सही रहेगा, वह भी बता दिया। इस घटना से मेरी आस्था और दृढ़ हुई, क्योंकि वास्तव में जब हम नीचे उतरने लगे तब सारी बताई बातें सत्य निकलीं।
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इस तरह और भी अनेक अनुभव हुए हैं, जिसके आधार पर मेरा मानना है कि हमारे सनातन धर्म में आराध्य को आराधक के लिए कल्याणकारी कार्य करने वाला तथा रक्षक माना जाता है, जो बिल्कुल सही है। हां, ध्यान रखें किसी भी सूरत में हमें अंधविश्वासी नहीं होना हैं। स्वध्याय सबसे उत्तम साधन है। इसलिये स्वध्याय का अभ्यास करते रहने में ही फायदा है।
अन्त में निष्कर्ष यही है कि हमारे आपके रिश्ते के बीच एक रेखा है उसे ही आस्था कहिए या विश्वास, विद्यमान है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर व हम सभी के बीच भी वही आस्था वाली रेखा विद्यमान है। यह रेखा जितनी मजबूत होगी, आस्था भी उसी अनुरूप दृढ़ होती जाएगी। हां कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं, वे कुछ भला होने पर भगवान को याद करते हैं और बुरा होने पर भी याद करते हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो ईश्वर में श्रद्धा / आस्था होने के बावजूद कोई अनहोनी होने पर बुरा भला भी कहने लगते हैं। जबकि उन्हें समझना चाहिये कि कष्ट के समय धैर्य ही काम आ सकता हैं। प्रबल आस्था से ही व्यक्ति कष्ट को भोग लेता है और इसी तथ्य को मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी एवं विद्वान रहीमजी ने केवल निम्न दो पंक्तियों के माध्यम से समझा दिया –
रहिमन बिपदा हू भली, जो थोरे दिन होय। हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।।
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