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India benefit from US China trade deal: क्या अमेरिका-चीन व्यापार समझौता भारत के लिए एक नई चुनौती है?

India benefit from US China trade deal: भारत ने बीते वर्षों में खुद को वैश्विक विनिर्माण केंद्र यानी ‘दुनिया की फैक्ट्री’ बनाने का सपना देखा है। सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ और ‘पीएलआई स्कीम’ जैसे कई कार्यक्रमों के ज़रिए विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश के लिए आकर्षित करने की कोशिश की। पर अब जब अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों में सुधार की खबरें आई हैं, तो यह सवाल उठना लाज़िमी है — क्या यह भारत के लिए चिंता की बात है?

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India benefit from US China trade deal: अमेरिका-चीन के रिश्तों में नरमी

हाल ही में जेनेवा में एक व्यापार समझौता हुआ, जिसमें अमेरिका और चीन ने एक-दूसरे पर लगाए गए टैरिफ (आयात शुल्क) को कम करने पर सहमति जताई। अमेरिका ने चीन से आने वाले उत्पादों पर टैरिफ को घटाकर 30 प्रतिशत कर दिया, जबकि भारत पर यह दर 27 प्रतिशत बनी हुई है। यह बदलाव वैश्विक व्यापार संतुलन पर असर डाल सकता है।

India benefit from US China trade deal: भारत की रणनीति को लगेगा झटका?

दिल्ली स्थित ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इंस्टीट्यूट (GTRI) से जुड़े विश्लेषक अजय श्रीवास्तव के मुताबिक, भारत को जो निवेश मिलने की संभावना थी, वह अब चीन की ओर लौट सकता है। उनका कहना है कि भारत में केवल असेंबलिंग (पार्ट्स को जोड़कर प्रोडक्ट बनाना) से लाभ नहीं होगा, बल्कि अगर वैल्यू एडिशन (ज्यादा महत्वपूर्ण उत्पादन प्रक्रिया) भारत में नहीं हुआ, तो भारत का औद्योगिक विकास सीमित रह जाएगा।

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एपल की भूमिका और अमेरिका की चेतावनी

पिछले महीने यह खबर आई थी कि अमेरिकी टेक कंपनी एपल चीन की बजाय भारत में आईफोन का उत्पादन बढ़ाना चाहती है। लेकिन अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि उन्होंने एपल को भारत में प्रोडक्शन ना करने की सलाह दी थी क्योंकि भारत में टैरिफ दरें बहुत ज्यादा हैं। ट्रंप का कहना था कि भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जहां आयात शुल्क सबसे ऊंचे हैं।

क्या भारत चीन का विकल्प बन पाएगा?

कैपिटल इकोनॉमिक्स के एक अर्थशास्त्री शिलान शाह का मानना है कि भारत चीन के स्थान पर अमेरिका का बड़ा सप्लायर बन सकता है। आंकड़े भी यह संकेत देते हैं कि भारत के निर्यात आदेश बीते कुछ महीनों में रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचे हैं।

एक जापानी ब्रोकिंग हाउस नोमुरा ने भी बताया कि भारत टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स और खिलौने जैसे सेक्टरों में लाभ उठा रहा है। हालांकि कुछ विश्लेषक मानते हैं कि चीन और अमेरिका के बीच रणनीतिक दूरी अभी भी बनी हुई है, जिससे भारत को भविष्य में फायदा मिल सकता है।

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सरकार की नीतियां और विदेशी निवेश

भारत की मौजूदा सरकार विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने की दिशा में कई कदम उठा रही है। भारत ने हाल ही में ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौता किया है जिसमें व्हिस्की और कारों पर आयात शुल्क कम किया गया है। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत अमेरिका के साथ भी व्यापार समझौते में ढील दे सकता है।

भारत को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

नोमुरा की अर्थशास्त्रियों सोनल वर्मा और अरुदीप नंदी के अनुसार, भारत को चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अपनी व्यापारिक नीतियों को सरल और अधिक प्रभावी बनाना होगा। ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस’ में सुधार ज़रूरी है ताकि टैरिफ या व्यापारिक विवादों से निपटा जा सके।

भारत में विदेशी कंपनियों को लंबे समय से निवेश संबंधी अड़चनों का सामना करना पड़ता रहा है — जटिल टैक्स कानून, धीमी नौकरशाही, भूमि अधिग्रहण की समस्याएं और श्रम कानून जैसी कई चुनौतियां अब भी सामने हैं। यही वजह है कि भारत की जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी बीते दो दशकों से 15% के आसपास ही बनी हुई है।

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पीएलआई स्कीम: क्या यह काफी है?

सरकार की प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) योजना के तहत कुछ कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने पर प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसका मकसद है कि भारत को उत्पादन केंद्र के रूप में विकसित किया जाए। हालांकि अब तक यह योजना कुछ चुनिंदा सेक्टरों तक ही सीमित रही है और इसका असर व्यापक रूप से दिखाई नहीं दिया है।

नीति आयोग का भी यह मानना है कि निवेशकों को आकर्षित करने में भारत की सफलता सीमित रही है। इसका कारण है वियतनाम, थाईलैंड और मलेशिया जैसे देशों की बेहतर टैक्स नीतियां, कम टैरिफ, और मज़बूत फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स।

आईफोन का उदाहरण: केवल असेंबलिंग से नहीं होगा काम

GTRI के अजय श्रीवास्तव के मुताबिक, भारत को एपल से फायदा तभी होगा जब आईफोन की असेंबलिंग के बजाय उसके पार्ट्स और अन्य महत्त्वपूर्ण हिस्सों का निर्माण भारत में हो। अभी की स्थिति में एपल अमेरिका में बिकने वाले हर आईफोन से लगभग 450 डॉलर कमाता है, जबकि भारत को उसमें से केवल 25 डॉलर का हिस्सा मिलता है। यह दिखाता है कि भारत को वास्तविक लाभ तभी होगा जब पूरी मैन्युफैक्चरिंग प्रक्रिया भारत में हो।

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श्रीवास्तव का यह भी कहना है कि जब तक सप्लायर्स भारत में प्रमुख पुर्जों का निर्माण नहीं करते, तब तक केवल असेंबलिंग से आर्थिक लाभ सीमित रहेगा।

चीन पर निर्भरता अभी भी बड़ी बाधा

भारत अभी भी इलेक्ट्रॉनिक्स के कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भर है। चाहे वह आईफोन हो या अन्य उत्पाद, भारत की सप्लाई चेन में चीन की भूमिका बनी हुई है। ऐसे में अगर भारत को वाकई चीन का विकल्प बनना है, तो उसे तकनीकी उत्पादन और सप्लाई चेन का विस्तार करना होगा।

भविष्य की राह क्या हो सकती है?

भारत को अपनी औद्योगिक नीति में एक व्यापक और दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। केवल आकर्षक योजनाएं और समझौते काफी नहीं हैं, जब तक कि बुनियादी ढांचे में सुधार, श्रम सुधार, और न्यायिक प्रक्रिया की तेज़ी न हो।

इसके अलावा, भारत को क्षेत्रीय और वैश्विक फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स में भागीदारी बढ़ानी होगी, जिससे विदेशी कंपनियों के लिए भारत एक स्थायी और भरोसेमंद विकल्प बन सके।

अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक रिश्तों में सुधार ने भारत के मैन्युफैक्चरिंग सपने को थोड़ा झटका जरूर दिया है। पर यह झटका स्थायी नहीं है, बशर्ते भारत अपने नीति स्तर पर मजबूत बदलाव करे और विदेशी निवेश को वास्तव में जमीन पर उतारे। भारत के पास जनसंख्या, श्रम बल और बाज़ार जैसी अनेक शक्तियां हैं, लेकिन अगर कारोबारी माहौल में सुधार नहीं हुआ, तो ये ताक़तें खोखली साबित हो सकती हैं।

इसलिए भारत के लिए यह समय आत्मनिरीक्षण और नीतिगत मजबूती का है — ताकि वह चीन के विकल्प के रूप में सिर्फ एक सपना न रहे, बल्कि एक ठोस हकीकत बन सके।

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