रोटी, कपड़ा और मकान ये किसी भी मानव के लिए आधारभूत जरूरत होती हैं। मानव को जीने के लिए खाना, मर्यादित तरीके से रहने के लिए कपड़ा और निवास करने के लिए मकान की जरूरत होती है। खाना मेहनत करके यानी कृषि कार्य करके मिलता है, जबकि कपड़ा हथकरघे से बनाया जाता है। कपड़े की पूर्ति करने के लिए बुनकरों का परिवार रात दिन मेहनत करके उसे तैयार करता रहा है। हथकरघा और कृषि हमारे देश के दो ऐसे उपक्रम रहे हैं, जो हममें स्वदेशी, स्वावलंबन और स्वाभिमान की भावना विकसित करते हैं। सर्वोदय कार्यकर्ता उमाशंकर पांडेय बताते हैं कि बुनकर हमारी मर्यादा की रक्षा करते हैं। जो हमें कपड़े उपलब्ध कराते हैं। कपड़ा तो हमारी पहली और अंतिम आवश्यकता है। कहा कि चरखा अब सिर्फ संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहा है।
जिस हथियार से गांधी जी ने अंग्रेजों से लोहा लिया। देश को एक सूत्र में बांधा। देश की अर्थव्यवस्था को स्वदेशी तरीके से मजबूत किया तथा जाति, धर्म का भेद मिटाया, आज उस स्वावलंबी हथियार हथकरघा चरखा चलाने वाले का जीवन संकट में है। उसको चलाने वाले बुनकर आज अपनी मूलभूत जरूरतें रोटी, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांधी, विनोबा के अंतिम जन आजादी के 7 दशक बाद भी अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यदि हमें हैंडलूम या हथकरघा को बचाना है तो गांव-गांव रहने वाले बुनकरों को सुरक्षित रखना होगा।
कहा कि निपुण बुनकरों से बुनकारी सीखने के लिए युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। कृषि के बाद हथकरघा ही सबसे बड़ा क्षेत्र है, जो सब को रोजगार दे सकता है। पढ़े-लिखे, अनपढ़, बच्चे, वृद्ध, महिला, पुरुष एवं परिवार के सभी सदस्य एक ही घर में एक ही हथकरघा में कृषि के साथ काम कर सकते हैं और करते भी रहे हैं। इस उद्योग में अपार संभावनाएं हैं। आजादी के पहले हैंडलूम का कार्य सभी जाति के लोग करते थे। पावर लूम युग आने के साथ ही इस परंपरागत हथकरघा के रोजगार पर संकट के बादल मंडराने लगे। आज अकेले बुंदेलखंड के 2 लाख बुनकरों का जीवन संकट में है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कुल 43 लाख बुनकर बचे हैं। 2011 की हथकरघा जनगणना के अनुसार 7% बुनकरों की संख्या प्रति वर्ष घट रही है। अगर बुनकर कारीगरों ने अपना हुनर छोड़ दिया तो यह कला पूरी तरीके से खत्म हो जाएगी। दुनिया का 85% हथकरघा वस्त्र उद्योग केवल भारत में होता है। वर्ष 2013 में योजना आयोग ने बुनकरों को नए तरीके से परिभाषित करने को कहा। आज कपड़ा मिल खड़ा हो जाने से 50 बुनकरों का काम एक आदमी एक पावर लूम में करता है। इससे 49 आदमी बेकार हो गए।
बुनकर हमारे समाज के इंजीनियर हैं, जो बिना किसी डिग्री के अपने काम में निपुण हैं। आज कोई भी युवा इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहा, क्योंकि ऐसा प्रचार प्रसार किया जा रहा है कि इसमें कैरियर नहीं है। यह हुनर लोगों की इज्जत है। मनुष्य जन्म से नंगा होता है। कपड़े से उसे ढंका जाता है। बुनाई हमारे देश की संस्कृति का हिस्सा थी, कला थी, साधना थी। स्वतंत्रता संग्राम की वर्दी बनने वाली कला को जीवित रखना मुश्किल हो रहा है। हथकरघा राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। यह हथकरघा सम्मानजनक रोजगार देने का प्रतीक है हथकरघा चरखा कृषि से ही केवल भारत के गांव समृद्ध किए जा सकते हैं।
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इंसान के हाथ इंसान द्वारा बनाई गई छोटी सी मशीन जो बिना बिजली के चलती है, सुंदर कपड़ों का सर्जन करती बुनकर कला को जिंदा रखना होगा। आम आदमी हैंडलूम और पावर लूम के कपड़ों में फर्क नहीं जानता है। कुछ वर्षों पूर्व बुंदेलखंड के झांसी मऊरानीपुर के हैंडलूम का कपड़ा पूरे भारत में दिखता था, जिसमें मऊरानीपुर में करीब 2 लाख लोगों को रोजगार मिलता था। किसी जमाने में महोबा, बांदा, छतरपुर, हरपालपुर बुनाई तथा कपास के उत्पादन के मुख्य केंद्र थे। आज के दौर में वे बंद है। उन्हें फिर शुरू करने की आवश्यकता है।
बुंदेलखंड के 80% बुनकर अपना परंपरागत हुनर त्याग कर दूसरे धंधे में लग गए हैं। यदि बुंदेलखंड का पलायन रोकना है, बेरोजगारी दूर करनी है, तो फिर हैंडलूम शुरू करना होगा। बुंदेलखंड के निवाड़ी, टीकमगढ़ बांदा के अतर्रा, खुरहंड में किसी जमाने में बुनाई, कढ़ाई, गोला बनाना, कंघी भरना, रंगाई, धुलाई, सूत खोलना, ताना बनाना कपड़े में गांठ लगाना, धोना, प्रेस करना जैसे अनेक कार्य करते थे। करीब 300000 परिवार किसी न किसी रूप में हथकरघा रोजगार से जुड़े थे।
सरकार की उदासीनता और जनप्रतिनिधियों की नासमझी के कारण पावर लूम युग आया और साथ ही बुंदेलखंड प्राकृतिक आपदा का शिकार बन गया। एक ओर जहां बाजार मंदी के दौर से गुजरा, वहीं बुंदेलखंड में पानी संकट होने के कारण सूखे की चपेट में आ गया। यहीं से बुनकरों का जीवन संकट में पड़ने लगा। बुंदेलखंड का भू-भाग केवल प्राकृतिक जल वर्षा पर निर्भर है पिछले 20 वर्षों से लगातार बुंदेलखंड सूखे की मार झेल रहा है यहां के निवासियों का जीवन यापन का सबसे बड़ा सहारा केवल कृषि है। सरकार की उदासीनता के कारण ना तो किसानों को समय पर सहयोग मिला और ना ही बुनकरों को अपने जीवन यापन के लिए कोई समाधान हुआ। गरीब किसान और बुनकर अपने परिवार को पलायन के लिए देश के महानगर दिल्ली, मुंबई, गुजरात, पंजाब आदि दूसरे शहरों में मजबूरी मे मजदूरी करने के लिए पलायन कर रहा है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं।
केवल वृद्धजन और बच्चे ही गांव में देखने को मिल रहे हैं प्रतिदिन 5000 लोग रेल बस या विभिन्न साधनों से बुंदेलखंड से पलायन कर रहे हैं। यदि सरकार बुनकरों को नई तकनीक पर हैंडलूम क्रियाशील पूंजी प्रशिक्षण पुनः दे तो यह परंपरागत रोजगार बुंदेलखंड में खड़ा हो सकता है। किसानों की भांति बुनकरों के लिए बुनकर क्रेडिट कार्ड बनाने की जरूरत है। बुनकरों को अपने बनाए कपड़े का मूल्य तय करने का अधिकार मिले। मिलिट्री हॉस्पिटल, सरकारी स्कूलों, दफ्तरों, मल्टीनेशनल कंपनियों, आंगनबाड़ी जैसे स्थानों पर उनको बेचने की की व्यवस्था हो।
हफ्ते में 1 दिन सभी लोग हैंडलूम के कपड़े पहने, नई-नई तकनीक के हैंडलूम स्टैंड लूम का आविष्कार होना चाहिए, जो सौर ऊर्जा से चल सके। पंजाब में बेटी को दहेज में चरखा दिया जाता है। वेदों महाभारत रामायण में भी बुनाई का जिक्र है असम में जिस लड़की को बुनाई नहीं आती, उसकी शादी होना मुश्किल होता है। कुरान में भी बुनाई का जिक्र है। गांधी, विनोबा को यदि हमें जिंदा रखना है तो हथकरघा चरखा को जिंदा रखना होगा।
Sanjay Dubey is Graduated from the University of Allahabad and Post Graduated from SHUATS in Mass Communication. He has served long in Print as well as Digital Media. He is a Researcher, Academician, and very passionate about Content and Features Writing on National, International, and Social Issues. Currently, he is working as a Digital Journalist in Jansatta.com (The Indian Express Group) at Noida in India. Sanjay is the Director of the Center for Media Analysis and Research Group (CMARG) and also a Convenor for the Apni Lekhan Mandali.