भाषा किसी भी देश की पहचान होती है। उससे उस देश की सभ्यता, संस्कृति का बोध होता है। हर देश की अपनी भाषा और बोलियां होती हैं। भारतवर्ष में दर्जनों भाषाएं और सैकड़ों बोलियां बोली जाती रही हैं। कई भाषाएं और बोलियां तो बिल्कुल समाप्त ही हो गई है। कुछ के बोलने वाले बहुत नाममात्र के रह गए हैं। इससे वे लगभग नष्ट होने के कगार पर हैं। लेकिन जो लगातार बढ़ रही है, वह है अंग्रेजी भाषा। अंग्रेजी में गाली देने वाला भी पढ़ा-लिखा और अभिजात्य वर्ग का माना जाता है, जबकि हिंदी में ज्ञान-विज्ञान की बात करने वाला पुरातनपंथी और सामान्य स्तर का समझा जाता है।
हिंदी के साथ हमारे देश में कई क्षेत्रीय भाषाएं भी बोली जाती हैं। सभी भारतीय भाषाओं की जड़ संस्कृत है। सभी भाषाएं वहीं से निकली हैं। हाल ही में भारत सरकार ने अपने मंत्री परिषद का विस्तार किया। इसमें कई नए लोगों को शामिल किया गया और कुछ पुराने लोगों को जिम्मेदारियों से मुक्त किया गया। नए मंत्रियों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री बने मनसुख मंडाविया के अंग्रेजी ज्ञान पर कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर ट्रोल किया। जिन लोगों ने ऐसा किया, उनकी सोच को समझा जाना चाहिए। वैसे कभी भी उच्च पदस्थ लोगों का आकलन उनके अंग्रेजी ज्ञान के आधार पर नहीं होना चाहिए।
अंग्रेजी जानना कोई वीरता या विद्वता या फिर प्रतिभा की बात नहीं है। अंग्रेजी न जानना कोई अपराध भी नहीं है। अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है, और न ही हम अंग्रेजी सभ्यता में पले-बढ़े हैं। न ही हमारे संविधान में कहीं लिखा है कि भारत में रहना है तो अंग्रेजी सीखना ही होगा, लेकिन जो लोग हिंदी नहीं जानते हैं, वे जरूर अपराध कर रहे हैं। हिंदी हमारी संस्कृति है। हमारी सभ्यता है। हमारे देश की राजभाषा है। हिंदी हमारी निजी भाषा है, हम हिंदी समाज में पले-बढ़े हैं और भारत में रहने वाले सभी लोगों को हिंदी या अपनी क्षेत्रीय भाषा जाननी ही चाहिए।
जो लोग हिंदुस्तान में रहकर अंग्रेजी के प्रति दीवानगी रखते हैं वे गुलामी मानसिकता के शिकार हैं। ऐसे लोग हिंदी में अच्छी बात कहने वाले को भी हल्का समझते हैं, लेकिन अंग्रेजी में गाली देने वाले की गुलामी करने में भी खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इसी वजह से 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद भी काफी लोग हमारे राजनेताओं और शासकों की गलत नीतियों की वजह से अभी तक मानसिक रूप से गुलाम बने हुए हैं।
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भारतवर्ष प्राचीन काल में शिक्षा, स्वास्थ्य, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे था। प्राचीन ग्रंथों और विदेशी इतिहासकारों की पुस्तकों में भी इसका व्यापक जिक्र है। उसमें इसका वर्णन है कि हमारे पूर्वजों ने अपने ज्ञान और भाषा में ही सभी तरह के ऐसे शोध और आविष्कार किए हैं, जिन्हें आज के वैज्ञानिक युग में विदेशी अपना शोध बताकर दुनिया के सामने वाहवाही लूट रहे हैं। चिकित्सा विज्ञान में जिन बीमारियों और रोगों का आज तक इलाज नहीं खोजा जा सका है, हमारे ऋषियों-मुनियों ने उनका उपचार हजारों वर्षों पहले से ही करते आ रहे हैं। लेकिन बाद में गुलाम वंशजों ने उन्हें भुला दिया।
कुछ दिन पहले परिवार समेत गोवा घूमने गए एक सज्जन वहां पर्यटन करने आए विदेशियों के हाव-भाव को देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्हें हिंदी भाषा और हिंदुस्तानी रहन-सहन से ही नफरत हो गई। अब वह अंग्रेजी में मास्टर बनने के लिए दिन रात एक कर दिए हैं। हर वक्त अंग्रेजी बोलते रहते हैं। उनसे कोई हिंदी में बोलता है तो वे उस पर ऐसे चीखते हैं, मानों हिंदी बोलना ही पाप है। इससे उनके परिवार वाले ही परेशान हो चुके हैं। पत्नी ने उन्हें समझाने की कोशिश की तो वे कहने लगे, “मैं इंग्लिश पढ़ा-लिखा मुझे हिंदी न समझाओ तुम।” बहरहाल गुलामी की इतनी इंतेहा भी ठीक नहीं है।
Sanjay Dubey is Graduated from the University of Allahabad and Post Graduated from SHUATS in Mass Communication. He has served long in Print as well as Digital Media. He is a Researcher, Academician, and very passionate about Content and Features Writing on National, International, and Social Issues. Currently, he is working as a Digital Journalist in Jansatta.com (The Indian Express Group) at Noida in India. Sanjay is the Director of the Center for Media Analysis and Research Group (CMARG) and also a Convenor for the Apni Lekhan Mandali.