भाषाएं हमें व्यक्त करती हैं। जब से मानव ने ठीक-ठाक ढंग से बोलना शुरू किया है, तब से वह तमाम प्रकार की भाषाओं और बोलियों का उपयोग करता रहा है। ये भाषाएं और बोलियां अलग-अलग स्थानों के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग तरह की रही हैं। ऐसा अनुमान है कि दुनिया भर में पौने सात हजार भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन सिर्फ दो-ढाई सौ भाषाएं ही ऐसी हैं, जिनको बोलने वाले लोगों की संख्या दस लाख या इससे ऊपर है। बाकी भाषाएं कुछ हजार या लाख लोग ही बोलते हैं। इससे वे धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं।
दैनिक जागरण समाचार पत्र के परिशिष्ट जागरण जोश में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक लगभग 357 भाषाएं ऐसी हैं जिनको मात्र 50 लोग ही बोलते हैं। इसी तरह 46 भाषाएं ऐसी हैं, जिनके बोलने वालों की संख्या एक या दो लोग है। आधुनिक संचार माध्यमों और अंग्रेजी प्रभाव की वजह से कई भाषाएं और बोलियां बिल्कुल खत्म हो गई हैं। न ही वह कहीं बोली जाती हैं और न ही उनका कोई जानकार ही है। इससे एक तरह से भाषाओं और बोलियों का लगातार अवसान हो रहा है। इससे डर है कि कहीं कुछ दिनों के बाद संसार में केवल दो-चार भाषाएं ही न रह जाएं और सब लोग केवल उसी को जानें।
पहले के समय में समाज ने अपनी भाषा और संस्कृति को अपनी अस्मिता और अस्तित्व के साथ जोड़कर रखा, उन्हें अपनी पहचान से जोड़ा, जिससे तब ये भाषाएं प्रचलन में रहीं और आगे भी बढ़ीं। यानी आबादी बढ़ने के साथ ही उनको बोलने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ी। लेकिन बाद के समय में ये लुप्त होने लगीं। खासकर तब जब उपनिवेशवाद का दौर आया और दुनिया में कुछ देश बहुत सारे देशों को अपनी गुलामी में जकड़ लिए। शासक वर्ग ने शोषित वर्ग पर अपने आधिपत्य को मजबूत करने के लिए उसकी सांस्कृतिक अस्मिता पर चोट पहुंचाने का कार्य किया।
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इसी को ध्यान में रखते हुए उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने लगातार समाप्त हो रही भाषाओं और बोलियों पर चिंता जताते हुए इनके संरक्षण पर जोर दिया है। नायडू ने संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि दुनिया में हर दो सप्ताह में एक भाषा विलुप्त हो जा रही है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में 196 भारतीय भाषाएं संकट की स्थिति में हैं। उन्होंने कहा, “भाषा किसी भी संस्कृति की जीवन रेखा होती है। जहां भाषा संस्कृति को मजबूत करती है, वहीं संस्कृति समाज को मजबूत करती है।”
भाषाओं के साथ सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनका संरक्षण कैसे किया जाए। जब तक हम आधुनिक तकनीकी और प्रबंधन विषयों को अपनी भाषा में नहीं पढ़ेंगे, तब तक हम स्वयं अपनी ही भाषा को नहीं जीवित रख पाएंगे। हमें अपने मूल्यों और रीति-रिवाजों को बचाए रखने और अगली पीढ़ी में उनको ले जाने के लिए अपने साहित्य, ग्रंथों और प्राचीन ज्ञान को संजोना होगा। ऐसा करने के लिए हमें अपनी ही भाषा का प्रयोग करना, उसको बोलना और उसमें रचनाएं करना आवश्यक है। अन्यथा भाषाओं के लुप्त होने के साथ ही हमारी पहचान भी लुप्त हो जाएगी। ऐसे में हमारी विविधता भी खत्म होगी। हमें ध्यान रखना होगा कि हमारी विविधता ही हमारी ऊर्जा है। इकहरापन हमें नीरस बनाता है, जिससे हमें जल्दी ऊब जाते हैं।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारा रहन-सहन बिल्कुल अलग है। हमारी भाषा-बोलियां और खाने-पीने का तौर-तरीका भी अलग है, लेकिन इतनी विविधता के बावजूद हम सब भारत माता की संतान हैं और भारतीय हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी विविधताएं ही हमारे लिए ऊर्जा का काम करती हैं और हम एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। हम एक शहर से दूसरे शहर जाते हैं तो वहां के सांस्कृतिक और सामाजिक जन जीवन से प्रभावित होते हैं। उसका आनंद लेते हैं। इससे हम एकरूपता या इकहरापन की नीरसता से बचे रहते हैं।
Sanjay Dubey is Graduated from the University of Allahabad and Post Graduated from SHUATS in Mass Communication. He has served long in Print as well as Digital Media. He is a Researcher, Academician, and very passionate about Content and Features Writing on National, International, and Social Issues. Currently, he is working as a Digital Journalist in Jansatta.com (The Indian Express Group) at Noida in India. Sanjay is the Director of the Center for Media Analysis and Research Group (CMARG) and also a Convenor for the Apni Lekhan Mandali.