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भारत में शैक्षिक व्यवस्था और भाषा का स्तर

दुनिया में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र भारत सदैव नेतृत्व की भूमिका में रहा है। (Photo Source- Indian Express)

✍️वत्सल श्रीवास्तव

भारत में प्राचीन काल से ही औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था प्रचलित रही है। बाद के दौर में जैसे-जैसे विकास और उन्नति के नए रास्ते खुले, शिक्षा व्यवस्था में भी आमूलचूल बदलाव देखने को मिली। 21वीं शताब्दी आते-आते टेक्नोलॉजी का दौर बढ़ा। उच्च शिक्षा और पैसे की लालसा में बड़ी संख्या में छात्र विदेशों की ओर रुख किए। इससे देश में विदेशी कालेजों और डिग्री का महत्व बढ़ने लगा।

हालांकि देश में शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए कई विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग और तकनीकी कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की गई। सरकार ने उच्च शिक्षा के साथ-साथ प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का स्तर भी सुधारने के लिए कई कदम उठाए हैं। भारत की मातृभाषा हिंदी रही है, लेकिन लंबे समय तक अंग्रेजी दासता में रहने की वजह से सरकार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी काफी समय तक सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी जारी रखी, जो अब भी कायम है। इससे धीरे-धीरे उच्च शिक्षा में अंग्रेजी एक प्रमुख भाषा के रूप स्वीकार कर ली गई।

इसके पहले 1934 में लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति अंग्रेजी को भारत की सरकारी भाषा तथा शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य दर्शन और विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने की रही थी। इस तरह भारत में दो प्रकार के माध्यम की शुरुआत हुई- एक अंग्रेजी और दूसरा हिंदी।

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समय बीतने के साथ-साथ हिंदी भाषा के साथ स्टेट बोर्ड शुरू हुए। इसमें हिंदी भाषा को प्रधानता दी जाती थी और अब भी दी जाती है। इस बीच कई अन्य बोर्ड गठित हो गए, जहां अंग्रेजी माध्यम प्रमुख थे। सीबीएसई (केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) पहले से ही था लेकिन उसके बाद आईसीएसई (इंडियन सर्टिफिकेट फॉर सेकेंडरी एजुकेशन बोर्ड),आईबी (इंटरनेशनल बैकलॉरेट), आईजीसीएसई (इंटरनेशनल जनरल सर्टिफिकेट ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन),सीआईई (कैंब्रिज एसेसमेंट इंटरनेशनल एजुकेशन), एनआईओएस (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग) इत्यादि बोर्डों की शुरुआत हो गई। शिक्षा व्यवस्था में आपसी कंपटीशन शुरू हो गया।

हमने शिक्षा स्तर को नहीं सुधारा हमने अपने बोर्ड को सुधारा। हमने स्टेट बोर्ड में हिंदी भाषा को तो प्रधानता दी, लेकिन अंग्रेजी को भी जोड़ा।

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