IMF-Pakistan-Bailout: पिछले हफ्ते अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने पाकिस्तान को एक अरब डॉलर की बेलआउट किश्त मंजूर कर दी। भारत ने इस कदम का कड़ा विरोध किया, खासकर तब जब हाल ही में भारत-पाकिस्तान के बीच सीज़फायर से पहले सैन्य तनाव बढ़ा हुआ था। भारत ने साफ तौर पर चिंता जताई कि पाकिस्तान इस फंड का इस्तेमाल सीमापार आतंकवाद के लिए कर सकता है, लेकिन IMF ने भारत की आपत्तियों को नजरअंदाज कर बेलआउट जारी रखने का निर्णय लिया।
IMF-Pakistan-Bailout: IMF की दलीलें और भारत की आपत्तियां
IMF ने कहा कि पाकिस्तान आर्थिक सुधारों को लागू करने की दिशा में गंभीरता दिखा रहा है और संस्थान प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के पाकिस्तान के प्रयासों को भी समर्थन देगा। इस पर भारत ने दो बड़े सवाल खड़े किए — पहला, पाकिस्तान का सुधारों में खराब ट्रैक रिकॉर्ड और दूसरा, इन फंड्स का दुरुपयोग संभावित रूप से आतंकवाद में।
भारत ने इसे IMF की साख पर सवाल उठाते हुए वैश्विक मूल्यों के साथ खिलवाड़ बताया। यह भी आरोप लगाया कि IMF, अपने डोनर्स की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहा है।
पाकिस्तान का ‘आईसीयू’ प्रेम
पाकिस्तान को IMF से बेलआउट कोई नया अनुभव नहीं है। 1958 से अब तक उसे 24 बार बेलआउट मिला है, लेकिन आर्थिक सुधार या प्रशासनिक बदलाव न के बराबर दिखे हैं। अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने इसे ‘आईसीयू में बार-बार भर्ती होने’ जैसा करार दिया — यानी समस्या सतही नहीं, बल्कि ढांचागत है।
भारत की रणनीति — ज़्यादा प्रतीकात्मक, कम प्रभावी?
विशेषज्ञ मानते हैं कि पाकिस्तान को IMF फंडिंग से रोकने की भारत की कोशिश प्रतीकात्मक थी, न कि प्रभावशाली। IMF की प्रक्रियाएं तकनीकी और औपचारिक होती हैं, और भारत की इसमें भूमिका सीमित है। भारत IMF बोर्ड में 2.6% वोटिंग शेयर के साथ चार देशों के समूह का प्रतिनिधित्व करता है। पाकिस्तान, दूसरी तरफ, सेंट्रल एशिया ग्रुप में है, जिसे ईरान प्रतिनिधित्व देता है।
IMF में फैसले आम सहमति से होते हैं, न कि वोटिंग से। सदस्य देश केवल पक्ष में वोट कर सकते हैं या अनुपस्थित रह सकते हैं। नतीजतन, भारत का विरोध दर्ज तो हुआ, लेकिन नीतिगत बदलाव पर उसका असर नहीं पड़ा।
वर्चस्व का खेल: IMF की संरचना का असंतुलन
IMF में अमेरिका का वोटिंग शेयर 16.49% है जबकि भारत का मात्र 2.6%। इस असंतुलन पर भारत पहले भी आवाज़ उठा चुका है, खासकर जब 2023 में उसने G20 अध्यक्षता के दौरान IMF के सुधारों की मांग की थी। पूर्व ब्यूरोक्रेट एनके सिंह और अमेरिकी वित्त मंत्री लॉरेंस समर्स की रिपोर्ट में IMF की वोटिंग प्रणाली में ग्लोबल साउथ को ज्यादा प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई थी।
यूक्रेन और पाकिस्तान: दोहरे मानदंड?
IMF ने हाल ही में युद्धरत यूक्रेन को 15.6 अरब डॉलर का लोन दिया — इतिहास में पहली बार किसी युद्धरत देश को इतना बड़ा कर्ज दिया गया। इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि IMF अपने ही नियमों में लचीलापन दिखा रहा है, जिससे यह उम्मीद करना कि पाकिस्तान की फंडिंग रोकी जाएगी, अवास्तविक है।
भारत के लिए सही मंच कौन-सा?
हुसैन हक्कानी का मानना है कि भारत को अपनी शिकायतें IMF में नहीं, बल्कि FATF (Financial Action Task Force) में उठानी चाहिए, जो आतंकवाद की फंडिंग पर नज़र रखता है। FATF ने पहले पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाला था, जिससे उसकी कर्ज लेने की क्षमता प्रभावित हुई थी। हालांकि अब पाकिस्तान को 2022 में FATF की ग्रे लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।
सुधार की दोधारी तलवार
IMF की संरचना में सुधार की मांग खुद भारत के लिए भी एक चुनौती बन सकती है। विशेषज्ञ चेताते हैं कि अगर वोटिंग पावर और वित्तीय योगदान को अलग किया गया, तो इससे भारत की बजाय चीन को ज्यादा ताकत मिल सकती है — और यह भारत की रणनीतिक स्थिति को नुकसान पहुंचा सकता है।
हक्कानी भी इस तर्क से सहमत हैं और चेताते हैं कि बहुपक्षीय मंचों पर द्विपक्षीय विवाद उठाने की नीति भारत के खिलाफ उलटी भी पड़ सकती है, जैसा कि अतीत में चीन ने IMF और ADB जैसे मंचों पर किया।
सबक: सीमाएं और संतुलन
भारत का विरोध चाहे जितना तर्कसंगत हो, IMF की व्यवस्था में उसकी सीमित भूमिका के कारण वह पाकिस्तान को बेलआउट मिलने से रोक नहीं सका। इस प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि वैश्विक मंचों पर असर डालने के लिए केवल नैतिक तर्क काफी नहीं हैं — आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रभाव की भी आवश्यकता है। भारत को अब यह तय करना होगा कि वह सुधार के मंचों पर जोर देगा या द्विपक्षीय कूटनीति को प्राथमिकता देगा। साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि बहुपक्षीय संस्थानों में सुधार की मांग कहीं भारत के लिए उलटी न पड़ जाए।

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