उधार की खैरात से जेब भर लेने पर नहीं बहुरेंगे अपने दिन

मार्च 2019 के अंतिम सप्ताह से पहले जब देश में कोरोना विषाणु को लेकर सतर्कता बरती गई और सरकार ने अचानक जनता कर्फ्यू और फिर लॉक डाउन लगाने का ऐलान किया, उस समय किसी को भी ऐसा अंदेशा नहीं था कि स्थिति इतनी विकराल हो जाएगी। पिछले चार-पांच दशक में भी ऐसी कोई घटना नहीं हुई, जिससे इस तरह के हालात के आने पर उससे निपटने के लिए हम मानसिक तौर पर कुछ तैयार रह पाते। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह विषाणु विश्वव्यापी था और महामारी के प्रकोप का दुष्परिणाम पूरी दुनिया ने भुगता। अब जब आज मार्च 2019 से जून 2021 आ गया यानी दो साल से भी ज्यादा का वक्त गुजर गया और हमने अपने लाखों प्रियजनों को खो दिया तो यह देखना दुखद है कि अब भी हम खुद में सचेत नहीं हो पाए हैं।

यह जानते हुए भी कि हमारी जरा सी चूक हमें भारी पड़ेगी, हम चूक दर चूक करते जा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम अर्थव्यवस्था पर पड़ा। कारखाने ठप हैं, व्यापार मंदा है, नौकरियां खत्म हो गई हैं और बेरोजगारी का आलम यह है कि चोरी करने पर भी बहुत कुछ पाने की उम्मीद नहीं रह गई है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब कैसे और किस तरह आगे बढ़ना है। हम पिछले दो साल में ही बीस साल पीछे हो गए हैं। लोगों के पास पैसा नहीं है कि वे खरीदारी करें। जब खरीदारी नहीं होगी तो उत्पादन पर असर पड़ना स्वाभाविक है। जब उत्पादन नहीं करना है तो कारखाने ठप रहेंगी ही और कारखानों के ठप रहने से श्रमिकों, मजदूरों को काम नहीं मिलेगा और फिर उनका घर कैसे चलेगा।

Post Covid-19, Economy
बेरोजगारी से जूझ रहे आंदोलनकारी शिक्षकों को रोकती पुलिस की प्रतीकात्मक तस्वीर। (Narinder Nanu/Agence France-Presse — Getty Images)

सरकार कर्ज देने के लिए तमाम लुभावने वादे कर रही है और कई तरह के आकर्षक तथा कम शर्तों वाले ऋण दे रही है, लेकिन दिक्कत यह है कि इस ऋण को लेकर चुकाएंगे कैसे, क्योंकि इन दो सालों में तो हम पहले से ही बहुत कर्जदार हो चुके हैं। पिछला ऋण चुका ही नहीं है, नया ऋण लेकर अपना बोझ ही बढ़ेगा, जिसके लिए हम तैयार नहीं हैं। सरकार छोटे उद्यमियों और व्यापारियों को ऋण देकर उन्हें अपना व्यापार बढ़ाने की बात कह रही है, लेकिन सवाल वही है कि जब उसके पास ग्राहक ही नहीं आएंगे तो वे ऋण लेकर क्या करेंगे। पहली जरूरत आम लोगों की जेब भरने की है, जिससे वे बाजार जाएं, लेकिन जेब ऋण से नहीं उन्हें काम देकर मेहनत की मजदूरी से भरनी होगी। जिससे कि वे जो कमाएं उसकी देनदारी कहीं नहीं हो, अन्यथा वे वहीं रहेंगे, जहां थे। और इस तरह अर्थव्यवस्था चाहे घर की हो या देश की वह बद से बदतर ही होगी। हमें इस पर विचार करना होगा।

cmarg author

Sanjay Dubey is Graduated from the University of Allahabad and Post Graduated from SHUATS in Mass Communication. He has served long in Print as well as Digital Media. He is a Researcher, Academician, and very passionate about Content and Features Writing on National, International, and Social Issues. Currently, he is working as a Digital Journalist in Jansatta.com (The Indian Express Group) at Noida in India. Sanjay is the Director of the Center for Media Analysis and Research Group (CMARG) and also a Convenor for the Apni Lekhan Mandali.

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