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हिंदी दिवस: शुभकामनाएं आईं, पर हिंदी में नहीं; Wishing a great hindi day

इतिहास में ऐसा बताया जाता है कि भारत में पहली बार अंग्रेजों का आगमन 23 जून 1757 को प्लासी के युद्ध से हुआ और 15 अगस्त 1947 को वे देश छोड़कर चले गए। इस तरह लगभग 190 सात वे यहां रहे। भारत भूमि और भारतीय सभ्यता तो सदियों से रही है, लेकिन हजारों साल पुरानी हमारी सभ्यता, संस्कृति और आचार-विचार पर वह 190 साल इतना भारी पड़ा कि हम अपनी भाषा को बोलने पर चर्चा करने के लिए एक दिवस (14 सितंबर) बनाए हुए हैं और उस दिन भी शुभकामना देने में अपनी भाषा बोलने में संकोच करते हैं।

हिंदी दिवस पर कई लोगों ने एक-दूसरे को बधाई संदेश भेजे, शुभकामनाएं दीं और हिंदी को बढ़ावा देने की बाते कहीं, लेकिन यह सारी चीजें अंग्रेजी में हुईं। किसी ने लिखा- Wishing you a great hindi day, I wish you a happy hindi day, I request you all to use hindi in our conversations तो कुछ अन्य लोगों ने बताया Hindi is so nice language. इतना कहने के लिए भी उन्हें हिंदी के शब्द नहीं सूझे तो मुझे लगता है कि अंग्रेज जरूर बेहतर रहे होंगे, जो हजारों साल पुराने हिंदी के देश में सिर्फ 190 साल रहकर ही हमें हजारों साल की गुलामी में रहने जैसा अहसास कराने में सफल रहे। अंग्रेजों को देश से गए 75 साल हो गए, लेकिन हम 75 साल बाद भी उनकी तरह रह रहे हैं।

खास बातें :
हजारों साल पुराने हिंदी के देश में सिर्फ 190 साल रहकर अंग्रेज हमें हजारों साल की गुलामी में रहने जैसा अहसास कराने में सफल रहे। अंग्रेजों को देश से गए 75 साल हो गए, लेकिन हम 75 साल बाद भी उनकी तरह रह रहे हैं।

जनगणना की तरह एक बार इसकी भी गणना हो जाए कि देश में कितने लोग किस भाषा को बोलना पसंद करते हैं तो शायद अंग्रेजी सबसे ऊपर होगी, अगर नहीं भी होगी तो भी उसकी इच्छा रखने वाले लोग तो जरूर सबसे ऊपर होंगे

सच तो यह है कि अगर किसी को अपना गुलाम बनाना हो, उसे मन-मस्तिष्क में यह बात भरनी हो कि वह खराब है और मैं अच्छा हूं तो सिर्फ एक ही रास्ता है और वह यह है कि उसकी भाषा और संस्कृति पर चोट पहुंचाओ। अंग्रेजों ने इस काम को प्रमुखता से किया और परिणाम यह हुआ कि हिंदी के प्रति हमारे मन में इतनी घृणा भर गई है या यह कहिए कि जुगुप्सा यानी अतिघृणा हो गई है कि हम हिंदी की शुभकामना भी अंग्रेजी में देते हैं।

आजकल एक नया अभियान चल रहा है। आप जब भी फेसबुक, यूट्यूब या सोशल मीडिया के अन्य मंचों पर जाएंगे तो आपको मुफ्त में अंग्रेजी सिखाने वाले पोस्ट या वीडियो दिखेंगे। आसान शब्दों में अंग्रेजी बोलना सिखाने वाले ये लोग कोई अंग्रेज नहीं, यहीं के हमारे भारतीय लोग है। उनके फॉलोवर और रोजाना अंग्रेजी क्लास करने वाले हजारों में नहीं, लाखों की संख्या में हैं।

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आम जिंदगी में कई सज्जन ऐसे भी मिलने लगे हैं जो बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्हें हिंदी आती तो है लेकिन वे उतना सहज नहीं है, लिहाजा अंग्रेजी में ही अपनी बात रखेंगे। अगर गलती से भी एक शब्द हिंदी उनके मुंह से निकल गया तो वे सॉरी कहकर उसको फिर अंग्रेजी में बड़े गर्व से समझाएंगे।

जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 साल होने और अंग्रेजों से मुक्त होने की बात करते हैं तो हमें यह समझने में परेशानी हो रही है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी क्यों नहीं है। क्षेत्रीय भाषा भी उतनी प्रमुखता नहीं पा रही हैं, जितनी अंग्रेजी भाषा को मिल रही है। खास बात यह है कि यह प्रमुखता अंग्रेज नहीं दे रहे हैं, बल्कि हमारे अपने ही लोग हैं।

जिस तरह जनगणना होती है, उसी तरह एक बार इसकी भी गणना हो जाए कि देश में कितने लोग किस भाषा को बोलना पसंद करते हैं तो शायद अंग्रेजी सबसे ऊपर होगी, अगर नहीं भी होगी तो भी उसकी इच्छा रखने वाले लोग तो जरूर सबसे ऊपर होंगे। हिंदी के प्रति इतना विराग और अंग्रेजी के प्रति ऐसा अनुराग क्यों है?

समय इसी तरह चलता रहा और सोच ऐसी ही बनी रही तो कुछ दिन बात माहौल ऐसा बन जाएगा कि अभी हम “हिंदी में सहज नहीं हैं” कहते हैं, तब कहेंगे कि “हिंदी समाज और हिंदी भाषी लोगों के साथ रहने में भी हम सहज नहीं हैं।”

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