सच क्या है, यह पता नहीं, वह दोषी थे या नहीं, यह भी कुछ साफ नहीं है, लेकिन फादर स्टेन स्वामी अंत समय में बीमार थे और जेल में रहने के दौरान जमानत के लिए कोर्ट में अर्जी दी थी। उनकी पहचान आदिवासियों और वंचितों के खिलाफ जुल्म का कड़ाई से विरोध करने वाले नेता के रूप में थी, लेकिन कानून की नजर में वे भीमा कोरेगांव हिंसा को उकसाने वाले जुल्मी के तौर पर देखे गए। उन पर राजद्रोह का केस चल रहा था। यही वजह थी कि गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद उनके मामले में सुनवाई और जमानत दोनों में जरूरत से ज्यादा की देरी हुई।
यह भी अचंभा करने वाली बात है कि जिसकी उम्र 84 वर्ष हो और जो कई तरह की बीमारियों से जूझ रहा हो, उसे अस्पताल में उचित इलाज की सुविधा पाने के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। उन्होंने भीमा कोरेगांव हिंसा के दौरान जो भी कथित तौर पर अपराध किया हो, उसका तो कानून अपने हिसाब से निपटारा करता ही, लेकिन जैसा कि कहा गया है कि समय और अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं, वही सच हुआ।
विपक्ष के कई नेताओं का कहना है कि फादर स्टेन स्वामी का पुराना रिकॉर्ड तो यही है कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद आदिवासियों, गरीबों और समाज के वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे एक तरह से मानवाधिकार कार्यकर्ता थे। लेकिन उन्हीं पर यह भी आरोप है कि उन्होंने हिंसा को बढ़ाने, उकसाने में मददगार भी बने। हो सकता है, ऐसा रहा भी हो, तब भी उनकी उम्र और बीमारियों को देखते हुए उन्हें तब तक अस्पताल में रखा जाना चाहिए था, जब तक कि वे जेल में अपने जुल्मों की सजा भुगतने के लिए शारीरिक रूप से तैयार नहीं हो जाते।
ऐसा कुछ होता इसके पहले ही मौत ने उन्हें अपनी ओर खींच ली और मुंबई के अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ दिया। यह आश्चर्य की बात है कि देश के काफी लोगों की नजर में उनकी छवि सज्जन तथा अन्याय के खिलाफ जुझारू और संघर्षशील नेता के रूप में है तो काफी लोग उन्हें माओवादी, नक्सलवादी और समाज विरोधी भी मानते हैं। आरोप तो यह भी है कि वे देश में ईसाई मिशनरियों के लिए काम कर रहे थे। इससे समाज का एक वर्ग उनको जेल में रखने और कड़ी सजा दिए जाने का समर्थक था, तो दूसरी तरफ कुछ लोग उनके साथ अन्याय होने की बात भी कही और उनकी गिरफ्तारी, जेल में रखने और उन पर आपराधिक केस दर्ज किए जाने का कड़ा विरोध किया।
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उनके खिलाफ मामलों की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने आरोप लगाया था कि स्टैन स्वामी प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) के सदस्य हैं और इसके मुखौटा संगठनों के संयोजक हैं तथा सक्रिय रूप से इसकी गतिविधियों में शामिल रहते हैं। जांच एजेंसी ने उन पर संगठन का काम बढ़ाने के लिए एक सहयोगी के माध्यम से पैसे हासिल करने का भी आरोप लगाया था।
सोमवार 5 जुलाई 2021 की दोपहर को उनकी मृत्यु की सूचना आने से ठीक पहले उनके मामले की सुनवाई कर रही बंबई उच्च न्यायालय के जजों की पीठ ने उनकी मौत पर हैरानी जताई। न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एनजे जमादार की पीठ ने इस खबर पर अफसोस जताया और कहा कि उन्हें कहने के लिए कुछ शब्द नहीं मिल रहे और आशा जतायी कि स्वामी की आत्मा को शांति मिलेगी।
फादर स्टैन स्वामी एक रोमन कैथोलिक पादरी थे। उनका जन्म 26 अप्रैल 1937 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उन्होंने थियोलॉजी और मनीला विश्वविद्यालय से 1970 के दशक में समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। बाद में उन्होंने ब्रसेल्स में भी पढ़ाई की, जहां उनकी दोस्ती आर्चबिशप होल्डर कामरा से हुई, जिनके ब्राजील के गरीबों के लिये काम ने उन्हें काफी प्रभावित किया।
बाद में उन्होंने 1975 से 1986 तक बेंगलुरू स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के निदेशक के तौर पर काम किया। झारखंड में आदिवासियों के लिये एक कार्यकर्ता के रूप में करीब 30 साल पहले उन्होंने काम करना शुरू किया। उन्होंने जेलों में बंद आदिवासी युवाओं की रिहाई के लिये काम किया, जिन्हें कथित तौर पर अक्सर झूठे मामलों में फंसाया जाता था। उन्होंने हाशिये पर रहने वाले उन आदिवासियों के लिये भी काम किया, जिनकी जमीन का बांध, खदान और विकास के नाम पर बिना उनकी सहमति के अधिग्रहण कर लिया गया था।
Sanjay Dubey is Graduated from the University of Allahabad and Post Graduated from SHUATS in Mass Communication. He has served long in Print as well as Digital Media. He is a Researcher, Academician, and very passionate about Content and Features Writing on National, International, and Social Issues. Currently, he is working as a Digital Journalist in Jansatta.com (The Indian Express Group) at Noida in India. Sanjay is the Director of the Center for Media Analysis and Research Group (CMARG) and also a Convenor for the Apni Lekhan Mandali.