राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लोग विभिन्न रूपों में जानते हैं। वह अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी रहे, लेखक रहे, प्रकृतिजीवी रहे, स्वबैद्यक रहे, महात्मा रहे, संत रहे, बैरिस्टर रहे। इन सबके अलावा एक और रूप में वे रहे, वह है पत्रकार, यानी उन्होंने पत्रकारिता भी की। वे एक अच्छे पत्रकार थे। अपने पेशे के प्रति ईमानदार और पत्रकारिता के मूल्यों को संजोने वाले और अपनी बात को पूर्णता से कहने वाले जर्नलिस्ट थे। उन्होंने इंडियन ओपिनियन, नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन जैसे अखबारों और पत्रिकाओं का संपादन और प्रकाशन किया।
कुछ लोग कहते हैं कि गांधी मूलत: पत्रकार नहीं थे, वह जब देश को गुलामी की जंजीरों में बंधा देखे तब अपनी बातें अधिक से अधिक लोगों तक व्यापक रूप में पहुंचाने के लिए पत्रों को माध्यम बनाया। पहले चिट्ठी लिखनी शुरू की, फिर पर्चे और बाद में अखबार को अपना लिया। उनका सत्याग्रह दरअसल पत्रकारिता का ही मूल रूप है। जुल्म और अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते हुए वे एक पत्रकार बन गए।
ब्रिटेन और अफ्रीका में शुरू हुई गांधी की पत्रकारिता : गांधी जी का असल में संघर्ष दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ। वहां वह गए तो थे कानूनी काम करने लेकिन वहां उन्होंने भारतीयों और तथाकथित काले लोगों पर जुल्म और अत्याचार का जो दृश्य देखा, वह उन्हें विचलित कर दिया। इसके बाद उन्होंने 4 जून 1903 को इंडियन ओपीनियन नामक मासिक पत्रिका की शुरुआत की। इसमें उन्होंने जुल्म और अन्याय के खिलाफ लेख लिखना शुरू किया। इस पत्रिका को गांधी जी ने स्वयं निकाला, प्रबंधन और संपादन किया।
इसको उन्होंने लोगों से खुद को जोड़ने और उनको अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करने का माध्यम बनाया। लेकिन इसके पहले वे इंग्लैंड में कई अखबारों के लिए लेख लिखना शुरू कर चुके थे। इसमें डेली टेलीग्राफ और डेली न्यूज जैसे बड़े अखबार शामिल रहे हैं। इसके बाद वह नवजीवन, यंग इंडिया और हरिजन अखबारों का संपादन और प्रकाशन किया।
गांधी जी पत्रकारिता को सेवाभाव और लोक कल्याण का माध्यम मानते थे। यह उनके लिए प्रतिदिन का काम था। अन्याय का प्रतिकार करना और उसके खिलाफ आवाज उठाना उनके व्यक्तित्व में था। वह इसी को सबमें लाना चाहते थे। गांधी बुक सेंटर, बंबई सर्वोदय मंडल नाना चौक, मुंबई से प्रकाशित गांधी वचनामृत में सुनील शर्मा ने गांधी जी की पत्रकारिता के बारे में लिखते हुए बताया है कि वे मानते थे कि समाचार पत्र का उद्देश्य लोक भावना को समझकर उसकी अभिव्यक्ति करना है।
पत्रकारिता का मुख्य ध्येय सेवा होना चाहिए। वह इसे हमेशा समाज को नई दिशा देने का एक साधन मानते थे। अफ्रीका में उन्होंने इसी सिद्धांत को अपनाया और लोगों की दशा सुधारने के लिए लंबे संघर्ष में जुट गए। इसके बाद ही वे अखबारों को अपने संघर्ष का माध्यम बनाया।
आज की पत्रकारिता से तब की पत्रकारिता की तुलना करें तो हम गांधी को पत्रकार कहें या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। इंडियन ओपीनियन हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और तमिल भाषाओं में प्रकाशित होता था। उस दौर में जब आज की तरह तकनीकी समाज नहीं था, और संचार की सुविधाएं भी मुहैया नहीं थी, तब चार भाषाओं में पत्रिका निकालना आसान काम नहीं था। ऐसे में कुछ लोगों का यह कहना- गांधी मूलतः पत्रकार नहीं थे, क्या सही है ? गांधी जी अपने जीवन काल के अंतिम दिनों तक हरिजन पत्रिका के लिए लिखते रहे। इसके अलावा वह नियमित रूप से कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखा करते थे।
प्रसिद्ध गांधीवादी नेता, विचारक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित विभाग के पूर्व अध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय गणित परिषद के पूर्व चेयरमैन और गांधी शांति अध्ययन संस्थान (गांधी भवन) इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लंबे समय तक निदेशक रहे डॉ. (प्रो.) बनवारी लाल शर्मा ने नई आजादी उद्घोष मासिक पत्रिका के लिए लिखे संपादकीय में एक जगह बताते हैं कि महात्मा गांधी ने कभी ये नहीं कहा कि पत्रकारिता आजीविका चलाने का जरिया है। वह तो स्वयं इसे साधना कहते थे। उसका काम तो आम आदमी की आवाज बनकर उसकी मदद करना है।
अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग में लिखा है कि अखबार के लिए विज्ञापन लेना पत्रकारिता को बेचने जैसा है। वह कहते हैं कि पत्रकारिता का व्यय पाठक संख्या बढ़ाकर निकालनी चाहिए, विज्ञापन लेकर नहीं। इसका उद्देश्य आर्थिक लाभ कमाना दूर-दूर तक नहीं था। उनकी पत्रकारिता में स्व-कल्याण की जगह लोक कल्याण का भाव निहित था।
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आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी और गांधीवादी चिंतक अभय प्रताप जी बताते हैं कि गांधी जी ने स्वराज हासिल करने के लिए पत्रकारिता का शस्त्र के रूप में कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया। यही कारण है कि महात्मा गांधी के काल को भारतीय पत्रकारिता का स्वर्ण काल माना जाता है। गांधी जी की हत्या के बाद उनकी पत्रकारिता तो बंद हो गई लेकिन उनके विचारों की पत्रकारिता, वे जिन मूल्यों के लिए लड़ते रहे, जिन मूल्यों के वे अग्रसारक बने, उन मूल्यों-आदर्शों की पत्रकारिता, उनकी मान्यताओं की पत्रकारिता, उनके मुद्दों की पत्रकारिता, उनके द्वारा स्थापित राष्ट्रीयता के भाव की पत्रकारिता आज भी हो रही है।
1909 में गांधी जी ने हिंद स्वराज लिखा। इसमें उन्होंने अखबार के काम के बारे में लिखा है कि इसका पहला काम है लोगों की भावना जानना और शब्दों से प्रकट करना, दूसरा लोगों में आवश्यक भावनाओं को पैदा करना और तीसरा काम किसी भी तरह के दोष को बिना भय प्रकट करना। हिंद स्वराज को पढ़कर गांधी जी की पत्रकारिता को समझना और जानना बहुत आसान है। इसमें गांधी जी ने सभी मुद्दों पर विस्तार से अपनी बात रखी है।
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